संयुक्त राष्ट्र,18 सितंबर (युआईटीवी)- भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि अफगानिस्तान की स्थिति केवल उसके आंतरिक राजनीतिक संकट तक सीमित नहीं है,बल्कि इसका असर पूरे क्षेत्र और विश्व की सुरक्षा पर पड़ सकता है। बुधवार को परिषद की बैठक में भारत के स्थायी प्रतिनिधि पी. हरीश ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अपील की कि लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी),जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम),अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठन अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल अपनी गतिविधियों के लिए न कर सकें। उन्होंने कहा कि यह न केवल अफगानिस्तान के लिए,बल्कि पूरे अंतर्राष्ट्रीय शांति और स्थिरता के लिए खतरा है।
हरीश ने कहा कि भारत अफगानिस्तान की सुरक्षा स्थिति पर बारीकी से नजर रख रहा है और इस बात को लेकर बेहद चिंतित है कि वहाँ की जमीन पर आतंकवादी संगठन लगातार अपने नेटवर्क को विस्तार देने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने इस पर जोर दिया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा नामित संगठनों और व्यक्तियों पर कड़ी निगरानी रखी जानी चाहिए,ताकि वे फिर से किसी बड़ी आतंकी घटना को अंजाम न दे सकें। उन्होंने लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े संगठन द रेसिस्टेंस फ्रंट द्वारा जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में किए गए हालिया हमले का उदाहरण देते हुए कहा कि इस घटना में 26 निर्दोष नागरिकों को उनके धर्म के आधार पर मारा गया,जो आतंकवाद की क्रूर मानसिकता को उजागर करता है। भारत इस हमले की कड़ी निंदा करता है और चाहता है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय भी ऐसे संगठनों को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए।
इस बैठक में संयुक्त राष्ट्र महासचिव की विशेष प्रतिनिधि रोजा ओटुनबायेवा ने भी अफगानिस्तान की स्थिति पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि भले ही बड़े पैमाने पर सशस्त्र संघर्ष और हिंसा में उल्लेखनीय गिरावट आई हो,लेकिन चरमपंथी समूहों की सक्रिय उपस्थिति अब भी अफगानिस्तान की शांति और स्थिरता के लिए गंभीर चुनौती बनी हुई है। उनके अनुसार,यदि इन संगठनों को अब नहीं रोका गया,तो यह क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़े खतरे का कारण बन सकते हैं।
2021 में अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया,तब से लेकर आज तक अंतर्राष्ट्रीय समुदाय इस प्रश्न से जूझ रहा है कि इस देश के साथ किस प्रकार का संबंध बनाए रखा जाए। न तो संयुक्त राष्ट्र ने और न ही भारत सहित अधिकांश देशों ने तालिबान सरकार को मान्यता दी है। फिर भी,अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति और उसकी आंतरिक चुनौतियाँ विश्व समुदाय को मजबूर करती हैं कि वे वहाँ के हालात पर गंभीरता से विचार करें।
भारत के स्थायी प्रतिनिधि हरीश ने कहा कि अफगानिस्तान के प्रति एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है। केवल दंडात्मक उपायों या प्रतिबंधों से बात नहीं बनेगी। इसके बजाय एक संतुलित नीति अपनानी होगी जिसमें सकारात्मक व्यवहार को प्रोत्साहित किया जाए और हानिकारक गतिविधियों को हतोत्साहित किया जाए। उन्होंने इस बात की ओर इशारा किया कि संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने संघर्ष के बाद के अन्य देशों में भी अधिक सूक्ष्म और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया है,जिसका सकारात्मक परिणाम मिला है। इसलिए,अफगानिस्तान के मामले में भी वैसा ही दृष्टिकोण जरूरी है।
हरीश ने कहा कि अफगानिस्तान के लोग आज भी गंभीर मानवीय संकट का सामना कर रहे हैं। उनकी शिक्षा,स्वास्थ्य और रोजगार की जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं। इस परिस्थिति में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से नहीं,बल्कि मानवीय आधार पर भी अफगानिस्तान की मदद करनी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि भारत सभी संबंधित पक्षों के साथ बातचीत जारी रखेगा और अफगानिस्तान के लोगों की विकास संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध रहेगा।
इस संदर्भ में विदेश मंत्री एस.जयशंकर और अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी के बीच हुई बातचीत का भी उल्लेख किया गया। जयशंकर ने दो बार मुत्तकी से बात की थी,लेकिन संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों के कारण मुत्तकी की नई दिल्ली यात्रा रद्द हो गई। हालाँकि,हाल ही में अफगानिस्तान के डिप्टी मेडिसिन एंड फूड मिनिस्टर हमदुल्लाह जाहिद और एक शीर्ष तालिबान अधिकारी ने भारत का दौरा किया,जिसने यह संकेत दिया कि दोनों देशों के बीच संपर्क पूरी तरह से टूटा नहीं है।
जयशंकर ने यह स्पष्ट किया कि भारत की प्राथमिकता अफगान जनता की जरूरतों को पूरा करना है। उन्होंने अफगानिस्तान को भारत द्वारा भेजी गई मानवीय सहायता का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत उनकी कठिनाइयों को कम करने में निरंतर योगदान करता रहेगा।
बैठक के दौरान ओटुनबायेवा ने तालिबान के भीतर की खींचतान पर भी रोशनी डाली। उन्होंने बताया कि तालिबान के नेतृत्व में दो तरह की सोच है। एक समूह अफगान जनता की बुनियादी जरूरतों को प्राथमिकता देता है,जबकि दूसरा समूह शुद्ध इस्लामी व्यवस्था बनाने पर जोर देता है। इस्लामी व्यवस्था पर जोर देने वाले गुट ने अफगान लोगों,खासकर महिलाओं और लड़कियों पर कई प्रकार की पाबंदियाँ लगाई हैं। महिलाओं की शिक्षा और रोजगार पर रोक ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की चिंता और बढ़ा दी है।
ओटुनबायेवा ने हाल की घटनाओं का उदाहरण देते हुए बताया कि हाल ही में आए भूकंप में महिलाओं को सहायता तक नहीं दी गई और संयुक्त राष्ट्र की महिला कर्मचारियों को उनके कार्यालयों में जाने से रोका गया। इस तरह की नीतियाँ यह दिखाती हैं कि तालिबान का रवैया कितना अव्यावहारिक और गैर-लोकतांत्रिक है। यही कारण है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय यह सवाल उठा रहा है कि क्या उन्हें ऐसे शासन का समर्थन करना चाहिए,जो अपनी जनता के हितों की अनदेखी करता है।
भारत ने सुरक्षा परिषद में दिए अपने बयान से यह संदेश स्पष्ट कर दिया है कि आतंकवाद के खिलाफ उसकी नीति किसी भी परिस्थिति में बदलने वाली नहीं है। लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठन केवल भारत के लिए ही खतरा नहीं हैं,बल्कि वैश्विक स्तर पर शांति और स्थिरता को कमजोर करने वाले तत्व हैं। भारत ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से एकजुट होकर इस चुनौती का सामना करने का आह्वान किया है।
इसके साथ ही भारत ने यह भी स्वीकार किया कि अफगानिस्तान की मौजूदा स्थिति में केवल कठोर नीतियों से समाधान संभव नहीं है। वहाँ के लोगों को मानवीय सहायता और विकास के अवसर प्रदान करना भी उतना ही जरूरी है। यही कारण है कि भारत लगातार यह प्रयास कर रहा है कि अफगान जनता को शिक्षा,स्वास्थ्य और रोजगार के क्षेत्र में मदद दी जाए।
संयुक्त राष्ट्र की बैठक ने एक बार फिर यह साबित किया कि अफगानिस्तान आज भी वैश्विक एजेंडे का अहम हिस्सा है। तालिबान शासन की नीतियों और आतंकवादी संगठनों की सक्रियता ने इस देश को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र बना दिया है। भारत का रुख इस मामले में स्पष्ट है कि आतंकवाद को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और अफगान जनता की मदद करने की प्रतिबद्धता हमेशा कायम रहेगी।
इस प्रकार,सुरक्षा परिषद की यह चर्चा केवल अफगानिस्तान की मौजूदा स्थिति का आकलन नहीं थी,बल्कि यह भी संकेत थी कि आने वाले समय में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को मिलकर इस चुनौती का सामना करना होगा। भारत ने अपनी भूमिका निभाते हुए आतंकवाद के खतरे को रेखांकित किया और साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि अफगानिस्तान की जनता को उनके हालात पर छोड़ देना किसी भी तरह से उचित नहीं है। अफगानिस्तान का भविष्य केवल उसके नेताओं के फैसलों से नहीं, बल्कि वैश्विक एकजुटता और सहयोग से तय होगा।
