वाशिंगटन,20 सितंबर (युआईटीवी)- अमेरिका में काम कर रहे भारतीय आईटी पेशेवरों और वहाँ की बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों के लिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक ऐसा कदम उठाया है,जिसने हड़कंप मचा दिया है। ट्रंप ने व्हाइट हाउस में एक आदेश पर हस्ताक्षर करते हुए एच-1बी वीज़ा प्रोग्राम में व्यापक बदलाव की घोषणा की है। इस आदेश के तहत अब कंपनियों को हर आवेदन पर प्रति वर्ष 1,00,000 डॉलर का शुल्क देना होगा। साथ ही वीज़ा की अधिकतम अवधि छह साल तक सीमित कर दी गई है,चाहे वह नया आवेदन हो या नवीनीकरण। इस फैसले का सीधा असर उन हजारों भारतीय पेशेवरों पर पड़ेगा,जो अमेरिका में काम कर रहे हैं और उन कंपनियों पर भी,जिनका संचालन विदेशी कर्मचारियों पर काफी हद तक निर्भर है।
ट्रंप ने आदेश पर हस्ताक्षर करते हुए कहा कि इस कदम का उद्देश्य अमेरिकी नौकरियों को अमेरिकी नागरिकों के लिए सुरक्षित करना है। उन्होंने साफ शब्दों में कहा, “हम चाहते हैं कि हमारी नौकरियाँ हमारे लोगों को मिलें। हमें अच्छे और प्रशिक्षित कामगार चाहिए और यह कदम उसी दिशा में है।” ट्रंप के मुताबिक,लंबे समय से विदेशी कामगारों के आने से अमेरिकी नागरिकों के रोजगार के अवसर प्रभावित हो रहे थे। खासतौर पर टेक्नोलॉजी सेक्टर में बड़ी कंपनियाँ सस्ते श्रम के नाम पर भारतीय और अन्य देशों के पेशेवरों को नियुक्त करती रही हैं। ट्रंप का मानना है कि अब इस प्रथा पर रोक लगाना आवश्यक हो गया था।
अमेरिकी वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लूटनिक ने भी इस निर्णय का समर्थन किया और इसे सही ठहराया। उन्होंने कहा कि नई व्यवस्था के तहत कंपनियों को पहले सरकार को 1 लाख डॉलर का शुल्क देना होगा और उसके बाद कर्मचारी का वेतन भी देना पड़ेगा। ऐसे में विदेशी कामगार को रखना कंपनियों के लिए आर्थिक रूप से महँगा सौदा साबित होगा। लूटनिक ने जोर देकर कहा, “अब समय है कि हम अपने विश्वविद्यालयों से स्नातक हुए युवाओं को प्रशिक्षित करें और उन्हें अवसर दें। हमारे देश की नौकरियाँ छीनने के लिए विदेशी लोगों को लाना अब बंद होगा। यही हमारी नीति है।”
इस घोषणा में एक और अहम पहलू सामने आया है,जिसे ट्रंप प्रशासन ने “गोल्ड कार्ड प्रोग्राम” नाम दिया है। इस प्रोग्राम के तहत कोई भी व्यक्ति 10 लाख डॉलर देकर अमेरिका का वीज़ा ले सकता है। वहीं,अगर कोई कंपनी अपने कर्मचारी के लिए इस प्रोग्राम का लाभ उठाना चाहती है,तो उसे 20 लाख डॉलर देने होंगे। इस पहल से स्पष्ट संकेत मिलता है कि ट्रंप प्रशासन विदेशी पेशेवरों की एंट्री को और कठिन और महंगा बनाना चाहता है।
अभी तक हर साल करीब 85 हजार नए एच-1बी वीज़ा जारी किए जाते हैं। इनमें सबसे बड़ा हिस्सा भारतीय पेशेवरों को मिलता है। प्यू रिसर्च के आँकड़ों के मुताबिक, 2023 में जारी किए गए एच-1बी वीज़ा में से लगभग 73 प्रतिशत भारतीयों को मिले थे,जबकि चीन के नागरिकों को लगभग 12 प्रतिशत वीज़ा दिए गए थे। इन आँकड़ों से साफ है कि इस बदलाव का सबसे गहरा असर भारतीय समुदाय पर पड़ेगा। भारत से बड़ी संख्या में आईटी इंजीनियर और टेक्नोलॉजी पेशेवर अमेरिका की कंपनियों में कार्यरत हैं। ऐसे में उनके भविष्य पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।
अमेरिका में कार्यरत भारतीयों का कहना है कि यह फैसला न केवल उनके रोजगार पर असर डालेगा बल्कि उनके परिवारों की स्थिरता और सपनों को भी तोड़ेगा। बहुत से भारतीय पेशेवरों ने वर्षों की मेहनत के बाद अमेरिका में अपनी पहचान बनाई है,लेकिन अब वे असमंजस की स्थिति में हैं। खासतौर पर वे लोग,जिन्होंने एच-1बी वीज़ा पर भरोसा करके अपना करियर और परिवार अमेरिका में बसाने की कोशिश की थी,वे सबसे अधिक प्रभावित होंगे।
दूसरी ओर,टेक्नोलॉजी कंपनियों के लिए भी यह बदलाव किसी बड़े झटके से कम नहीं है। गूगल,माइक्रोसॉफ्ट,अमेज़न और आईबीएम जैसी दिग्गज कंपनियों में हजारों भारतीय इंजीनियर काम कर रहे हैं। इन कंपनियों का कहना है कि भारतीय पेशेवरों की दक्षता और मेहनत ने उनकी सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अगर इस तरह की कठोर नीतियाँ लागू की जाती हैं,तो इससे अमेरिकी टेक्नोलॉजी उद्योग की प्रतिस्पर्धा क्षमता पर भी असर पड़ सकता है।
ट्रंप प्रशासन का तर्क है कि यह कदम अमेरिकी अर्थव्यवस्था और सुरक्षा दोनों के लिए आवश्यक है। आदेश में कहा गया है कि एच-1बी वीज़ा का गलत इस्तेमाल हो रहा था,जिससे अमेरिकी कामगारों को नुकसान उठाना पड़ रहा था। उनका मानना है कि अब इस पर अंकुश लगाकर देश की आंतरिक स्थिति को मजबूत किया जाएगा। हालाँकि,आलोचकों का कहना है कि यह फैसला वैश्विक प्रतिस्पर्धा की भावना के खिलाफ है और इससे अमेरिका की छवि पर नकारात्मक असर पड़ेगा।
भारत सरकार भी इस फैसले पर करीबी नजर रखे हुए है। कूटनीतिक हलकों में चर्चा है कि आने वाले दिनों में भारत और अमेरिका के बीच इस विषय पर बातचीत हो सकती है। भारत के लिए यह मामला इसलिए भी अहम है क्योंकि अमेरिका में बसे लाखों भारतीयों का भविष्य इस नीति से जुड़ा हुआ है।
ट्रंप प्रशासन का यह फैसला न केवल भारतीय पेशेवरों और टेक्नोलॉजी कंपनियों के लिए बल्कि भारत-अमेरिका संबंधों के लिए भी चुनौतीपूर्ण हो सकता है। जहाँ एक ओर अमेरिका अपने नागरिकों को प्राथमिकता देने का दावा कर रहा है,वहीं दूसरी ओर इस नीति से वैश्विक प्रतिभा और अमेरिकी उद्योगों की प्रगति को नुकसान पहुँचने का खतरा है। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अमेरिकी टेक्नोलॉजी सेक्टर इस नई व्यवस्था को अपनाकर आगे बढ़ पाएगा या फिर उसे वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा में पीछे हटना पड़ेगा।