नई दिल्ली,29 दिसंबर (युआईटीवी)- उन्नाव रेप कांड से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाते हुए पूर्व विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को दिल्ली हाईकोर्ट से मिली जमानत पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी है। यह फैसला न केवल इस मामले को एक नई कानूनी दिशा देता है,बल्कि यह भी संकेत देता है कि अदालतें विशेष रूप से नाबालिगों से जुड़े जघन्य अपराधों में किसी भी तरह की नरमी दिखाने से पहले स्थिति का गंभीरता से मूल्यांकन करना चाहती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) की याचिका पर सुनवाई करते हुए सेंगर को नोटिस जारी किया और उनसे इस पर जवाब माँगा है कि जमानत क्यों बरकरार रखी जाए।
सोमवार को मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत,जस्टिस जे.के. माहेश्वरी और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने इस मामले पर विस्तार से सुनवाई की। सुनवाई के दौरान अदालत ने स्पष्ट किया कि आमतौर पर यदि कोई व्यक्ति जेल से बाहर आ चुका हो,तो न्यायालय उसकी स्वतंत्रता छीनने से परहेज करता है,लेकिन इस केस में परिस्थिति बिल्कुल अलग है,क्योंकि कुलदीप सिंह सेंगर पहले से ही एक अन्य मामले में जेल में बंद हैं। ऐसे में,हाईकोर्ट द्वारा दी गई जमानत व्यावहारिक रूप से उन्हें कोई वास्तविक राहत नहीं देती,फिर भी इसके कानूनी प्रभाव दूरगामी हो सकते हैं। इसी आधार पर शीर्ष अदालत ने जमानत आदेश पर रोक लगाने का निर्णय लिया।
सीबीआई की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत के सामने अपनी दलीलें रखीं। उन्होंने जोर देकर कहा कि यह मामला एक नाबालिग बच्ची से दुष्कर्म का है—ऐसा अपराध जिसमें कानून पहले से ही बेहद कठोर सजा का प्रावधान करता है। मेहता ने बताया कि सेंगर पर भारतीय दंड संहिता की धारा 376 और पोक्सो एक्ट की धारा 5 और 6 के तहत आरोप तय किए गए थे। ट्रायल कोर्ट ने उपलब्ध सबूतों के आधार पर सेंगर को दोषी करार दिया और उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई। अदालत ने अपने आदेश में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया था कि पीड़िता की उम्र घटना के समय 16 वर्ष से कम—करीब 15 वर्ष 10 महीने थी।
सॉलिसिटर जनरल ने यह भी तर्क दिया कि जब अपराध किसी प्रभावशाली व्यक्ति द्वारा किया जाता है,तो कानून और भी कठोर रुख अपनाता है। धारा 375 और उससे संबंधित प्रावधानों के तहत अपराध की गंभीरता को देखते हुए न्यूनतम 20 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान मौजूद है। मेहता के अनुसार,हाईकोर्ट ने अपने आदेश में इन पहलुओं का पर्याप्त तरीके से विश्लेषण नहीं किया और जमानत देने के मानकों को अपेक्षित गंभीरता से नहीं परखा।
सीबीआई ने यह भी कहा कि ट्रायल कोर्ट ने जिन प्रावधानों के तहत सेंगर को दोषी पाया,उनमें उम्रकैद के स्पष्ट प्रावधान के बावजूद हाईकोर्ट ने जमानत देने में जल्दबाज़ी दिखाई। तुषार मेहता ने हाईकोर्ट के उस निष्कर्ष पर भी आपत्ति जताई, जिसमें कहा गया था कि विधायक पोक्सो एक्ट की धारा 5 के तहत ‘पब्लिक सर्वेंट’ की श्रेणी में नहीं आते। उन्होंने तर्क दिया कि जब पीड़ित नाबालिग है,तब अपराधी की सरकारी या राजनीतिक हैसियत से ज्यादा महत्व अपराध की प्रकृति और उसके सामाजिक प्रभाव का होता है।
दूसरी ओर,कुलदीप सिंह सेंगर की ओर से वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ दवे और हरिहरन ने बचाव पक्ष का पक्ष रखते हुए कहा कि सेंगर के खिलाफ लगाए गए कुछ आरोपों को लेकर कई कानूनी सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं और हाईकोर्ट ने इन्हीं बिंदुओं पर विचार करते हुए जमानत दी थी। उनका कहना था कि अपील लंबित रहने के दौरान किसी आरोपी को अनिश्चित काल तक जेल में रखना न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं माना जाना चाहिए। हालाँकि,सुप्रीम कोर्ट ने इन दलीलों पर फिलहाल कोई अंतिम टिप्पणी किए बिना जमानत पर रोक लगाए रखने का फैसला किया और मामले की आगे सुनवाई का रास्ता खुले रखा।
यह मामला पिछले कई वर्षों से सुर्खियों में रहा है और देशभर में बाल यौन अपराधों के खिलाफ कानून की विश्वसनीयता पर चर्चा का केंद्र बना रहा। उन्नाव में रहने वाली एक नाबालिग लड़की ने 2017 में सेंगर पर दुष्कर्म का आरोप लगाया था। इसके बाद पीड़िता और उसके परिवार को कथित धमकियों,सामाजिक दबाव और कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ा। मामला जब मीडिया और राष्ट्रीय मंच पर पहुँचा,तब केंद्रीय एजेंसियों ने हस्तक्षेप किया और जाँच सीबीआई को सौंप दी गई।
सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम आदेश के बाद अब यह मामला फिर से कानूनी बहसों के केंद्र में आ गया है। अदालत ने यह संकेत दिया है कि नाबालिग पीड़िताओं से जुड़े मामलों में न्याय के साथ-साथ समाज में जाने वाला संदेश भी महत्वपूर्ण होता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में जमानत के मानकों को सामान्य आपराधिक मामलों की तरह नहीं देखा जा सकता,क्योंकि यहाँ पीड़िता की सुरक्षा,न्याय प्रक्रिया की निष्पक्षता और समाज में कानून के प्रति विश्वास का सवाल जुड़ा होता है।
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह कदम,भविष्य में ऐसे मामलों में जमानत देने के मापदंडों को और सख्त कर सकता है। वे कहते हैं कि जब तक अपील लंबित है और दोषसिद्धि बरकरार है,अदालतें बहुत सोच-समझकर ही किसी भी तरह की राहत देती हैं। दूसरी ओर,सेंगर के समर्थक इस फैसले को अत्यधिक कठोर बता रहे हैं और उम्मीद जता रहे हैं कि आगे की सुनवाई में उन्हें राहत मिल सकती है।
फिलहाल,शीर्ष अदालत ने जमानत पर रोक लगाकर संदेश दिया है कि न्याय प्रक्रिया में जल्दबाजी नहीं होगी और हर पहलू का बारीकी से अध्ययन किया जाएगा। अब सबकी नजर आगे होने वाली सुनवाई पर टिकी है,जिसमें तय होगा कि क्या सेंगर को जमानत मिल पाएगी या उन्हें उम्रकैद की सजा के खिलाफ लंबित अपील के दौरान भी जेल में ही रहना पड़ेगा। इस बीच,पीड़ित पक्ष को इस फैसले से कुछ हद तक राहत मिली है,क्योंकि उनके अनुसार यह कदम न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है।
