Maharaja Hari Singh, Jammu

26 अक्टूबर जम्मू-कश्मीर की आजादी के लिए सेना और स्थानीय लोगों के बलिदान का प्रतीक

श्रीनगर, 27 अक्टूबर (युआईटीवी/आईएएनएस)| जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर, 1947 को विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए, जिसके बाद भारतीय सेना कबायली आक्रमणकारियों को खदेड़ने के लिए यहां उतरी थी। साल 2020 से जम्मू-कश्मीर सरकार उस दिन को परिग्रहण दिवस के रूप में मना रही है, जिसे सार्वजनिक अवकाश के रूप में घोषित किया गया है।

15 अगस्त, 1947 को भारत और पाकिस्तान के दो स्वतंत्र देशों में उपमहाद्वीप के विभाजन के बाद पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने तत्कालीन जम्मू और कश्मीर राज्य के नए देश पाकिस्तान के साथ विलय न होने को ‘अधूरा’ विभाजन कहा था।

अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए पाकिस्तान ने वजीरिस्तान के अफरीदी जनजाति के कबायलियों को जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण करने के लिए भेजा था।

कबायली कश्मीर पर ऐसे उतरे, जैसे गिद्ध किसी जानवर के शव पर उतरते हैं। महाराजा की सेना शुरुआती प्रतिरोध के बावजूद लूटपाट करने वाले कबायलियों को नहीं रोक सकी। कबायलियों ने बर्बर आक्रमणकारी की तरह लूटपाट और महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया।

कश्मीर को पहले दिन से ही उनके इरादों का आभास हो गया था और स्थानीय लोगों ने आक्रमणकारियों को खदेड़ने के लिए भारतीय सेना के साथ मिलकर लड़ाई लड़ी।

तथ्य यह है कि आक्रमणकारियों से लड़ते हुए 6,000 से अधिक कश्मीरी मारे गए।

पहली भारतीय वायुसेना की उड़ान श्रीनगर हवाईअड्डे पर उतरी और सैनिकों ने 27 अक्टूबर, 1947 को श्रीनगर शहर में प्रवेश किया।

सेना ने कबायलियों के साथ कई लड़ाइयां लड़ीं और श्रीनगर शहर के बाहरी इलाके में शाल्तेंग की लड़ाई सबसे बड़ी में से एक थी।

कबायलियों ने मोहरा पावर स्टेशन को नुकसान पहुंचाया, महल और श्रीनगर शहर की बिजली आपूर्ति बाधित कर दी। उसके बाद महाराजा हरि सिंह घाटी से चले गए थे। वहां के इंजिनियर इंचार्ज को कबायलियों ने मार डाला था।

महाराजा को पुंछ जिले में भी विद्रोह का सामना करना पड़ा था और कबायलियों को सीमा पार से भी गुप्त रूप से समर्थन मिला था।

बताया जाता है कि कबायलियों को भगाते समय 1,000 से अधिक सैनिक मारे गए थे।

श्रीनगर शहर के बाहरी इलाके से खदेड़ दिए जाने के बाद कबायली झेलम नदी पर बने कोहाला पुल को पार करके पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में चले गए।

स्थानीय लोगों ने भारतीय सेना की आंख और कान की तरह काम किया और आक्रमणकारियों के खिलाफ उनके गुस्से को कई तरह से प्रकट किया।

‘हमलावर खबरदार हम कश्मीरी हैं तैयार’ – यह नारा घाटी में हर जगह सुना गया। स्थानीय लोगों ने आक्रमणकारियों के खिलाफ छोटे प्रतिरोध समूह बनाए।

सितंबर 1947 की शुरुआत तक सामान्य शांति स्थापित हो गई थी, लेकिन आक्रमणकारियों के खिलाफ लड़ाई 1948 तक जारी रही।

सन् 1948 में संयुक्त राष्ट्र ने जम्मू-कश्मीर में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम रेखा की निगरानी के लिए पर्यवेक्षकों के अपने समूह को भेजा। यह रेखा अंतत: नियंत्रण रेखा (एलओसी) नामक वास्तविक सीमा बन गई।

भारतीय सेना ने अनुकरणीय बहादुरी दिखाई। इसके 1,103 सैनिक कबायलियों से लड़ते हुए मारे गए।

भारतीय सेना ने 1947-48 के जम्मू-कश्मीर ऑपरेशन के दौरान 5 परम वीर चक्र, 47 महावीर चक्र और 284 वीर चक्र पुरस्कार जीते, जिसमें 3 वीर चक्र पुरस्कार भी शामिल हैं।

लंबे अभियान के दौरान भारतीय सेना ने 76 अधिकारियों, 31 जेसीओ और 996 अन्य रैंकों के सैनिकों को खो दिया, जिससे कुल शहीदों की संख्या 1103 हो गई।

जम्मू-कश्मीर ने आखिरकार सेना और स्थानीय लोगों के बलिदान की बदौलत अपनी आजादी हासिल की।

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