ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील, तेजी से हो रहा सिकुड़न

नई दिल्ली, 9 फरवरी (युआईटीवी/आईएएनएस)| हिमालय के ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं और तेजी से सिकुड़ते जा रहे हैं। यह उन पर निर्भर रहने वाली आबादी के लिए एक बड़ा खतरा है। वैज्ञानिक एक्सप्लेनेशन में यह बात कही गई है।

ग्लेशियरों द्वारा प्रदान की जाने वाली पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के अलावा, उनके पिघलने से बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है, जैसा कि हाल ही में उत्तराखंड ग्लेशियर आपदा के साथ देखा गया था, जिसमें 26 लोग मारे गए और 197 लोग अभी भी लापता हैं और बचाव कार्य जारी है।

हिमालय में वर्तमान में जो कुछ भी हो रहा है उसके पीछे के विज्ञान के बारे में अपनी 2019 की रिपोर्ट में ‘इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज’ (आईपीसीसी) द्वारा पूर्वानुमान लगाया गया था कि ग्लेशियर आगामी वर्षों में हट जाएंगे, जिससे भूस्खलन और बाढ़ आएगी।

हिमालय के ग्लेशियर दक्षिण एशिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो कृषि, हाइड्रोपावर और जैव विविधता के लिए पीने का पानी और जल संसाधन प्रदान करते हैं।

हिमालय क्षेत्र के हिंदूकुश में ग्लेशियर 8.6 करोड़ भारतीयों सहित इस क्षेत्र में रहने वाले 24 करोड़ लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण जलापूर्ति है, जो देश के पांच सबसे बड़े शहरों के बराबर है।

दो साल पहले एक अन्य व्यापक रिपोर्ट में, ‘इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट’ (आईसीआईएमओडी) द्वारा समन्वित हिंदूकुश हिमालय आकलन में कहा गया है कि पूर्वी हिमालय के ग्लेशियर मध्य और पश्चिमी हिमालय की तुलना में तेजी से सिकुड़ गए हैं।

आईसीआईएमओडी के महानिदेशक पेमा ग्याम्त्सो ने सोमवार को कहा, “हालांकि उत्तराखंड में बाढ़ के कारण अभी भी कुछ असमंजस की स्थिति बनी हुई है, इसलिए हम इस मामले में क्या हुआ, इस बारे में समझने के लिए अपने सहयोगियों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं।”

आईसीआईएमओडी हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र के आठ क्षेत्रीय सदस्य देशों – अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, भारत, म्यांमार, नेपाल और पाकिस्तान में लोगों को सशक्त बनाने के लिए अनुसंधान, सूचना और नवाचारों को विकसित और साझा करता है।

चेतावनी देते हुए, ‘एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट’ (टीईआरआई) द्वारा 2019 चर्चा पत्र में हिमालयी क्षेत्र में वार्मिग रेट को ध्यान में रखते हुए 2020 के दशक में 0.5 डिग्री से एक डिग्री सेल्सियस तक और मध्य-शताब्दी तक एक से तीन डिग्री तक बढ़ने का अनुमान लगाया गया।

हालांकि, वार्मिग रेट दर स्थानिक या अस्थायी रूप से एक समान नहीं है।

हालांकि, ‘नेचर’ में प्रकाशित 2017 के एक अध्ययन में चेतावनी दी गई कि अगर वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री से कम भी रखा जाए, तो भी एशिया के ऊंचे पहाड़ों में जमा बर्फ का लगभग 35 फीसदी हिस्सा खो जाएगा।

यह कहता है कि उच्च ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के मद्देनजर यह 65 प्रतिशत तक बढ़ सकती है।

हिमालय को एक ‘वाटर टॉवर’ बताते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एनवायरनमेंटल साइंस के प्रोफेसर ए.पी. डिमरी ने कहा कि बढ़ती ग्लोबल वार्मिग के साथ, हिमालय का ऊपरी क्षेत्र तेजी से गर्म हो रहा है, जिससे ग्लेशियर ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं।

हिमालयी राज्यों में बाढ़ और भूस्खलन की आशंका के साथ, इस आपदा ने वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों द्वारा पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील पहाड़ों में जलविद्युत परियोजनाओं की समीक्षा के लिए प्रेरित किया।

इस घातक बाढ़ ने दो पनबिजली बांधों को भी प्रभावित किया। दावा किया कि अधिकांश पीड़ित बिजली परियोजनाओं के मजदूर थे।

‘सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च’ की सीनियर फेलो मंजू मेनन ने कहा, “वैश्विक स्तर पर जलवायु नीति के सबसे दुर्भाग्यपूर्ण परिणामों में से एक ऊर्जा के एक व्यवहार्य गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोत के रूप में सरकारों द्वारा बड़े बांधों की एक अभिकल्पना है।”

संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय (यूएनयू) द्वारा किए गए एक विश्लेषण में कहा गया है कि 2050 में पृथ्वी पर अधिकांश लोग 20वीं शताब्दी में बने हजारों बड़े बांधों के बीच रहेंगे, उनमें से कई पहले से ही अपनी जिंदगी को इस तरह से जी रहे हैं या जीवन या संपत्ति को खतरे में डाल रहे हैं।

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