नई दिल्ली,16 अक्टूबर (युआईटीवी)- कर्नाटक में कांग्रेस सरकार द्वारा चलाए जा रहे सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक सर्वेक्षण,जिसे जाति जनगणना के रूप में भी जाना जा रहा है,इस समय राज्य की राजनीतिक और सामाजिक बहस का केंद्र बन गया है। इसी बीच आईटी उद्योग के पितामह और इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति और उनकी पत्नी,मशहूर लेखिका सुधा मूर्ति ने इस सर्वेक्षण में भाग लेने से साफ इनकार कर दिया है। इस निर्णय ने न केवल राज्य में चर्चा पैदा कर दी है,बल्कि यह सवाल भी खड़ा किया है कि सर्वेक्षण में भाग लेना कितना अनिवार्य और सुरक्षित है।
नारायण मूर्ति और सुधा मूर्ति ने सर्वेक्षण कराने वाली स्वायत्त सरकारी संस्था,कर्नाटक राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग को एक स्व-सत्यापित पत्र सौंपा। इस पत्र में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि वे व्यक्तिगत कारणों से सर्वेक्षण में हिस्सा नहीं लेंगे। आधिकारिक सर्वेक्षण प्रपत्र में लिखा गया है, “हम और हमारा परिवार जनगणना में भाग नहीं लेंगे और हम इस पत्र के माध्यम से इसकी पुष्टि कर रहे हैं।” उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि वे किसी भी पिछड़ी जाति से संबंधित नहीं हैं और उनकी भागीदारी सरकार के लिए उपयोगी साबित नहीं होगी। नारायण मूर्ति ने अपने पत्र में यह साफ कहा,”इसलिए, हम इसमें भाग नहीं ले रहे हैं।”
इस कदम को कई विशेषज्ञ और सामाजिक विश्लेषक कर्नाटक में जाति जनगणना की प्रक्रिया में व्यक्तियों की सुरक्षा और गोपनीयता के दृष्टिकोण से समझ रहे हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता बीवी आचार्य ने भी हाल ही में यह विचार व्यक्त किया कि जाति जनगणना में भाग न लेना ही बेहतर होगा। उनका कहना है कि अगर कोई इसमें शामिल होता है,तो व्यक्तिगत जानकारी के दुरुपयोग का खतरा बढ़ सकता है। इस चेतावनी ने उन लोगों के लिए भी चिंता बढ़ा दी है,जो इस समय सर्वेक्षण में भाग लेने के लिए तैयार हैं।
कर्नाटक में जाति जनगणना की प्रक्रिया गतिशील और व्यापक है। हाल ही में गणनाकर्ताओं ने उपमुख्यमंत्री और राज्य कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार के बेंगलुरु स्थित आवास पर सर्वेक्षण किया। इस दौरान शिवकुमार ने अपने परिवार के सदस्यों के साथ सभी सवालों का उत्तर दिया। धर्म,जाति और अन्य महत्वपूर्ण जानकारियों पर विस्तृत पूछताछ की गई,जिस पर उन्होंने धैर्यपूर्वक जवाब दिए। हालाँकि,लगातार पूछताछ और सवालों की संख्या बढ़ने के कारण शिवकुमार कथित तौर पर चिढ़ गए और कहा, “आप सिर्फ सवाल पूछने में इतना समय क्यों लगा रहे हैं? बहुत ज्यादा सवाल कर रहे हैं।” इस घटना ने यह दिखाया कि सर्वेक्षण की प्रक्रिया कभी-कभी नागरिकों के लिए थकाने वाली और तनावपूर्ण हो सकती है।
राज्य सरकार ने सर्वेक्षण को पूरा करने की प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए कई कदम उठाए हैं। स्कूलों को आधे दिन के कार्यक्रम में समायोजित किया गया है और सरकारी तथा सहायता प्राप्त स्कूल नई समय सीमा तक सुबह 8 बजे से दोपहर 1 बजे तक संचालित होंगे। साथ ही,कुछ दशहरा की छुट्टियों को भी बढ़ा दिया गया है,ताकि गणना की प्रक्रिया को पूरा किया जा सके। इसके अलावा,राज्य सरकार ने सर्वेक्षण की समय सीमा बढ़ाते हुए यह सुनिश्चित किया कि यह 12 अक्टूबर तक पूरे राज्य में और 24 अक्टूबर तक बेंगलुरु में पूरा हो। यह बदलाव इसलिए किया गया क्योंकि 7 अक्टूबर तक आँकड़ों का संग्रह अधूरा रह गया था।
अक्टूबर 2025 की शुरुआत तक कर्नाटक में चल रहे जाति सर्वेक्षण में लगभग 83 प्रतिशत परिवारों को शामिल किया जा चुका है। राज्य के कुल 1.43 करोड़ परिवारों में से 1.22 करोड़ परिवारों की गणना की जा चुकी है। इस आँकड़ें ने यह स्पष्ट किया है कि सर्वेक्षण व्यापक पैमाने पर प्रभावी रहा है,लेकिन फिर भी कुछ बड़े और प्रमुख व्यक्तियों द्वारा इसमें भाग न लेने का निर्णय इसे चर्चा का विषय बना रहा है।
नारायण मूर्ति और सुधा मूर्ति का यह कदम समाज और राजनीति के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। दोनों व्यक्तियों की प्रतिष्ठा और सार्वजनिक छवि के कारण उनके निर्णय को मीडिया और जनता की व्यापक निगरानी मिल रही है। मूर्ति दंपत्ति ने अपने व्यक्तिगत कारणों को आगे रखते हुए यह स्पष्ट किया है कि उनकी गैर-भागीदारी किसी सामाजिक या राजनीतिक संदेश का हिस्सा नहीं है,बल्कि यह उनकी निजी पसंद और सुरक्षा का मामला है।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह के कदम से सर्वेक्षण की विश्वसनीयता और जनता की भागीदारी पर असर पड़ सकता है। कुछ लोग इसे सरकार के लिए चुनौती मान रहे हैं,जबकि अन्य इसे नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता का अधिकार समझ रहे हैं। इस बीच,जाति जनगणना के उद्देश्यों और नीतियों पर भी बहस जारी है। यह देखा जा रहा है कि राज्य सरकार इस डेटा का उपयोग सामाजिक-आर्थिक योजनाओं और पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए कर रही है,लेकिन इस प्रक्रिया में नागरिकों की गोपनीयता सुनिश्चित करना भी उतना ही जरूरी है।
नारायण मूर्ति और सुधा मूर्ति के निर्णय ने राज्य में एक नई चर्चा को जन्म दिया है,जिसमें यह सवाल उठाया जा रहा है कि क्या सभी नागरिकों को इस तरह के सर्वेक्षण में भाग लेना चाहिए या उनकी व्यक्तिगत गोपनीयता और सुरक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। उनके इस कदम ने यह भी संकेत दिया कि महत्वपूर्ण और प्रभावशाली व्यक्तियों की भागीदारी या गैर-भागीदारी पूरे सामाजिक और राजनीतिक माहौल को प्रभावित कर सकती है।
कर्नाटक में चल रहे जाति जनगणना अभियान ने न केवल राज्य की सामाजिक और आर्थिक तस्वीर को उजागर किया है,बल्कि इसमें नागरिकों की भागीदारी,गोपनीयता और सुरक्षा के मुद्दे भी सामने आए हैं। नारायण मूर्ति और सुधा मूर्ति का यह निर्णय इन बहसों में एक नया आयाम जोड़ता है और यह दर्शाता है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सरकारी नीतियों के बीच संतुलन बनाए रखना कितना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
राज्य सरकार की कोशिश है कि सर्वेक्षण समय पर पूरा हो और सभी परिवारों को शामिल किया जा सके,लेकिन इस बीच प्रमुख व्यक्तियों की गैर-भागीदारी इसे और अधिक चर्चा का विषय बनाती है।
