कर्तव्य भवन (तस्वीर क्रेडिट@krbasudhaBJP)

अब ‘राजभवन’ नहीं, पूरे देश में होंगे ‘लोकभवन’: 1 दिसंबर,2025 का ऐतिहासिक फैसला

नई दिल्ली,2 दिसंबर (युआईटीवी)- 1 दिसंबर,2025 का दिन भारत के संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण बदलाव के रूप में दर्ज हो गया,जब केंद्र सरकार के आदेश के बाद देशभर के सभी राज्यों में स्थित ‘राजभवनों’ का नाम औपचारिक रूप से बदलकर ‘लोकभवन’ कर दिया गया। केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के बाद से अब सभी राज्यपालों के आधिकारिक आवास और उनसे संबंधित प्रशासनिक भवन ‘लोकभवन’ के रूप में जाने जाएँगे। एक झटके में पूरे देश में संवैधानिक व्यवस्था की इस पहचान में बदलाव ने राजनीतिक और वैचारिक स्तर पर एक व्यापक संदेश दिया है—सत्ता का केंद्र राजशाही नहीं,बल्कि जनता है।

केंद्र सरकार ने इस निर्णय को महज एक औपचारिक नाम परिवर्तन न बताते हुए इसे प्रतीकात्मक सुधार बताया है,जिसका उद्देश्य शासन-प्रशासन के चरित्र में निहित मूलभूत भावनाओं को स्पष्ट करना है। सरकार का कहना है कि ‘राजभवन’ नाम राजशाही का प्रतीक है,जबकि भारतीय लोकतंत्र का आधार जनता है,इसलिए ‘लोकभवन’ अधिक उपयुक्त और लोकतांत्रिक भावना के अनुकूल नाम है। यह निर्णय मोदी सरकार की उस नीति का हिस्सा है,जिसके तहत पिछले 11 वर्षों में कई स्थानों,मार्गों और भवनों के नाम उनके उद्देश्य और भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप किए गए हैं।

राजभवनों का नाम बदलने के पीछे सरकार का तर्क है कि सत्ता कोई विशेषाधिकार या विलासिता का साधन नहीं,बल्कि जनता के प्रति जिम्मेदारी का प्रतीक है। इस कदम से यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि शासन तंत्र जनता की सेवा और कल्याण के लिए है,न कि सत्ता के भव्य प्रतीकों को बनाए रखने के लिए। सरकार के अनुसार, ‘लोकभवन’ शब्द सीधे तौर पर उस भावना को दर्शाता है कि इसमें निहित शक्ति और पद जनता से प्राप्त हैं और इसका लक्ष्य जनता का भला करना है।

इससे पहले भी केंद्र सरकार ने कई महत्वपूर्ण नाम बदलाव करके एक वैचारिक दिशा का संकेत दिया था। राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ करना इसका मुख्य उदाहरण है। ‘राजपथ’ नाम इतिहास में राजाओं और शाही शानो-शौकत का प्रतीक रहा,लेकिन ‘कर्तव्य पथ’ ने इसे बदलकर शासन की प्राथमिकता को सेवा और जिम्मेदारी की ओर मोड़ दिया। इसी प्रकार,प्रधानमंत्री आवास के लिए उपयोग होने वाली 7 रेस कोर्स रोड का नाम 2016 में बदलकर लोक कल्याण मार्ग कर दिया गया था,जिसने यह स्पष्ट किया कि प्रधानमंत्री कार्यालय का मार्ग किसी प्रतिष्ठा के केंद्र की ओर नहीं,बल्कि लोककल्याण के उद्देश्य की ओर जाता है।

हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री कार्यालय के नए परिसर को भी ‘सेवा तीर्थ’ नाम दिया गया है। यह नाम सेवा के आदर्श को सर्वोच्च स्थान देने के उद्देश्य से चुना गया है,ताकि यह स्पष्ट हो सके कि यह स्थान शक्ति का नहीं,बल्कि सेवा का पवित्र केंद्र है। इन सभी नाम परिवर्तनों को सरकार ने एक सोच और दर्शन के साथ जोड़ा है— शाही परंपराओं और औपनिवेशिक प्रतीकों को हटाकर शासन व्यवस्था को अधिक लोकतांत्रिक,सेवा-प्रधान और जन-केंद्रित बनाना।

‘राजभवन’ का नाम बदलकर ‘लोकभवन’ करना इस विचारधारा का सबसे बड़ा कदम माना जा रहा है,क्योंकि राजभवन भारतीय संघीय व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। राज्यपाल,संविधान के प्रतिनिधि के रूप में,राज्य के संवैधानिक संरक्षक होते हैं। ऐसे में उनके आवास का नाम ‘लोकभवन’ करना इस बात का प्रतीक है कि राज्य की सत्ता का केंद्र जनता है और राज्यपाल भी जनता के हितों की रक्षा के लिए ही कार्य करते हैं। कई राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे एक सकारात्मक बदलाव बताया है,जो लोकतंत्र की भावनाओं को मजबूत करता है।

हालाँकि,कुछ विपक्षी दलों ने इस कदम पर सवाल भी उठाए। उनका कहना है कि नाम बदलना शासन के मूलभूत मुद्दों का समाधान नहीं है और सरकार को प्रतीकात्मकता के बजाय वास्तविक सुधारों पर ध्यान देना चाहिए। इसके जवाब में केंद्र सरकार ने स्पष्ट किया कि यह बदलाव प्रतीकात्मक जरूर है,लेकिन यह प्रतीक लोकतंत्र की भावना और उसकी बुनियाद को मजबूत करने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। सरकार का तर्क है कि मानसिकता और सोच में परिवर्तन तभी शुरू होता है,जब प्रतीकों में बदलाव लाया जाता है।

इस ऐतिहासिक बदलाव के बाद अब देशभर में आधिकारिक तौर पर राजभवन की जगह ‘लोकभवन’ लिखा और बोला जाएगा। राज्यपालों के सभी आधिकारिक पत्राचार,सरकारी नाम पट्ट,वेबसाइटें और दस्तावेज अब इस नए नाम के अनुरूप संशोधित किए जा रहे हैं। केंद्र सरकार ने राज्यों को निर्देशित किया है कि वे जल्द-से-जल्द इस परिवर्तन को लागू कर प्रशासनिक प्रक्रियाओं को अपडेट करें।

1 दिसंबर,2025 का यह निर्णय भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में एक नई दिशा को दर्शाता है। नाम बदलने के माध्यम से सरकार ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि शासन जनता की सेवा का माध्यम है और संवैधानिक संस्थानों की पहचान भी उसी भावना को प्रतिबिंबित करनी चाहिए। आने वाले दिनों में इसका सामाजिक और राजनीतिक असर किस प्रकार सामने आता है,यह देखना दिलचस्प होगा,लेकिन इतना निश्चित है कि ‘राजभवन’ से ‘लोकभवन’ तक का यह सफर भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में याद किया जाएगा।