नई दिल्ली,27 दिसंबर (युआईटीवी)- उन्नाव दुष्कर्म मामले में सजा काट रहे पूर्व विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को दिल्ली उच्च न्यायालय से मिली राहत के बाद अब मामला एक बार फिर देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुँच गया है। केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने दिल्ली उच्च न्यायालय के उस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है,जिसमें अदालत ने सेंगर की आजीवन कारावास की सजा को निलंबित करते हुए अपील की सुनवाई लंबित रहने तक उन्हें जमानत दे दी थी। संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत दायर विशेष अनुमति याचिका में एजेंसी ने तर्क दिया है कि अपराध की गंभीरता,पीड़िता और गवाहों की सुरक्षा तथा न्याय व्यवस्था पर इसके संभावित प्रभाव को देखते हुए यह आदेश समीक्षा योग्य है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने 23 दिसंबर को अपना आदेश सुनाते हुए कहा था कि अपील लंबित रहने के दौरान सेंगर की सजा निलंबित की जा सकती है,बशर्ते वे अदालत द्वारा तय की गई सख्त शर्तों का पालन करें। न्यायमूर्ति सुब्रमणियम प्रसाद और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर की डिविजन बेंच ने माना था कि लंबी अवधि की सजा और अपीलों के निस्तारण में लगने वाले समय को ध्यान में रखते हुए जमानत आवेदन पर विचार किया जा सकता है। हालाँकि,सुनवाई के दौरान सीबीआई ने इसका कड़ा विरोध किया और कहा कि इस तरह का कदम पीड़िता के लिए भय और असुरक्षा की नई स्थिति पैदा कर सकता है,साथ ही समाज में गलत संदेश भी जाएगा।
रोचक बात यह है कि सिर्फ सीबीआई ही नहीं,बल्कि पीड़िता का परिवार भी उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रहा था। परिवार का कहना है कि अदालत के इस निर्णय ने चार साल से अधिक समय तक चली कठिन कानूनी लड़ाई के बाद उन्हें मिली न्यायिक संतुष्टि को झकझोर दिया है। पीड़िता के करीबी लोगों का मानना है कि ऐसे मामलों में सजा निलंबित करना न केवल पीड़ितों का मनोबल तोड़ता है,बल्कि अपराधियों के लिए भी ढील का संकेत देता है।
हालाँकि,कानूनी रूप से जमानत मिल जाने के बावजूद सेंगर की तत्काल रिहाई संभव नहीं लगती,क्योंकि वह पीड़िता के पिता की मौत से जुड़े मामलों में भी सजा भुगत रहे हैं। इन मामलों में उन पर आरोप है कि उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए पीड़िता के परिवार को प्रताड़ित कराया और अंततः यह प्रकरण एक और गंभीर आपराधिक मुकदमे में बदल गया। उन्नाव कांड ने 2017 से लेकर अब तक देश की राजनीति, पुलिस व्यवस्था और न्यायिक प्रणाली पर बड़े सवाल उठाए हैं और महिलाओं के खिलाफ अपराधों के प्रति संवेदनशीलता को लेकर भी व्यापक बहस छेड़ी है।
दिसंबर 2019 में दिल्ली की विशेष अदालत ने सेंगर को नाबालिग लड़की के अपहरण और दुष्कर्म का दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि आरोपी ने अपने राजनीतिक दबदबे का दुरुपयोग किया और कानून की धज्जियाँ उड़ाईं। इसके साथ ही उन पर 25 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया गया था,जो पीड़िता और उससे जुड़े खर्चों के लिए निर्धारित किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने उसी वर्ष इस मामले से जुड़े सभी मुकदमों को उत्तर प्रदेश से दिल्ली स्थानांतरित करते हुए निचली अदालत को रोजाना सुनवाई करने का निर्देश दिया था,ताकि प्रक्रिया में अनावश्यक देरी न हो।
दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के बाद शुक्रवार को स्थिति और भी संवेदनशील हो गई,जब पीड़ित परिवार,सामाजिक कार्यकर्ताओं और महिला अधिकार संगठनों ने अदालत परिसर के बाहर विरोध प्रदर्शन किया। हाथों में तख्तियाँ और बैनर लेकर प्रदर्शनकारियों ने नारेबाजी की और कहा कि इस तरह के आदेश जनता के विश्वास को कमजोर करते हैं। उनका कहना था कि जब गंभीर यौन अपराधों में दोषी ठहराए गए लोगों को राहत मिलती है,तो आम महिलाएँ यह महसूस करती हैं कि न्याय की राह उनके लिए और भी कठिन हो गई है। कई प्रदर्शनकारियों ने यह भी कहा कि अदालतों को ऐसे मामलों में “पीड़ित केन्द्रित दृष्टिकोण” अपनाना चाहिए,ताकि न्याय प्रक्रिया का उद्देश्य मात्र तकनीकी न रहकर मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा रहे।
सीबीआई की याचिका में यह भी रेखांकित किया गया है कि उन्नाव मामले के दौरान कई बार गवाहों और पीड़िता के परिवार को धमकियों का सामना करना पड़ा था। एजेंसी का कहना है कि यदि ऐसे अपराधों में सजा पाए व्यक्तियों को जमानत पर रिहा किया जाता है,तो इससे जाँच और मुकदमे से जुड़े लोगों की सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को उच्च न्यायालय के आदेश की कानूनी और सामाजिक दोनों दृष्टियों से समीक्षा करनी चाहिए। अब सुप्रीम कोर्ट यह तय करेगा कि क्या सजा निलंबन और जमानत का यह आदेश बरकरार रहेगा या फिर मामले की गंभीरता को देखते हुए इसे रद्द कर दिया जाएगा।
दूसरी ओर,सेंगर की कानूनी टीम का तर्क है कि अपील लंबित रहने के दौरान किसी भी आरोपी को सजा निलंबित करने और जमानत का अधिकार मिल सकता है,बशर्ते कोर्ट को यह लगे कि उसकी मौजूदगी से न तो न्याय प्रक्रिया प्रभावित होगी और न ही समाज में कोई प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न होगी। उनका कहना है कि यह मामला कानून के सामान्य सिद्धांतों से अलग नहीं है और अदालत ने सभी तथ्यों पर विचार करने के बाद ही आदेश दिया है।
इस पूरे विवाद ने एक बार फिर उस बुनियादी सवाल को सामने ला दिया है कि यौन अपराधों से जुड़े मामलों में सजा पाए दोषियों के अधिकार और पीड़ितों की सुरक्षा के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए। विशेषज्ञों का कहना है कि कानून न्याय और अधिकारों के बीच संतुलन का ढाँचा प्रदान करता है,लेकिन वह ढाँचा तभी सार्थक होता है,जब अदालतें सामाजिक संदर्भों को ध्यान में रखकर निर्णय लें। उन्नाव कांड के मामले में यह संतुलन और भी नाजुक हो जाता है,क्योंकि यह केवल एक अपराध की कहानी नहीं,बल्कि सत्ता,प्रभाव और कमजोर वर्ग की पीड़ा से जुड़ा एक बड़ा सामाजिक प्रश्न भी है।
फिलहाल नजरें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं,जहाँ यह तय होगा कि दिल्ली उच्च न्यायालय का आदेश कायम रहेगा या उसे पलट दिया जाएगा। इस बीच पीड़िता का परिवार,महिला अधिकार समूह और नागरिक समाज का बड़ा वर्ग उम्मीद लगाए बैठा है कि न्यायिक प्रक्रिया पीड़ितों के अधिकारों और सुरक्षा को प्राथमिकता देगी। वहीं,कानूनी समुदाय इस पूरे मामले को एक अहम नजीर के रूप में देख रहा है,जो भविष्य में गंभीर अपराधों में जमानत के मानकों को प्रभावित कर सकती है।
