वॉशिंगटन/नई दिल्ली,28 अगस्त (युआईटीवी)- भारत और अमेरिका के बीच संभावित व्यापार समझौते को लेकर बुधवार को नई हलचल देखी गई। अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने आशा जताई कि दोनों देश अंततः एक साथ आएँगे। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के व्यक्तिगत संबंधों को रेखांकित करते हुए कहा कि दोनों नेताओं के बीच “बहुत अच्छे संबंध” हैं और इसी आधार पर वे भविष्य में किसी समझौते की संभावना देखते हैं।
अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने फॉक्स न्यूज के साथ एक विशेष साक्षात्कार में कहा कि, “भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था। मुझे इसा लगता है कि अंततः हम एक साथ आएँगे।” हालाँकि,इस उम्मीद के बीच ट्रंप प्रशासन ने भारत पर 25 प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ लगा दिया है,जिससे कुल टैरिफ 50 प्रतिशत तक पहुँच गया। इस फैसले ने दोनों देशों के बीच तनाव को और बढ़ा दिया है।
अमेरिका का यह कदम भारत के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। जहाँ अमेरिका का दावा है कि वह अपने आर्थिक हितों की रक्षा कर रहा है,वहीं भारत ने इन टैरिफ को ‘अनुचित’ करार दिया है। भारत का कहना है कि ऐसे कदम विकासशील देशों के उद्योगों और किसानों पर सीधा असर डालते हैं और मुक्त एवं निष्पक्ष व्यापार की भावना के खिलाफ हैं।
इस साक्षात्कार में बेसेंट ने इस बात को भी स्वीकार किया कि भारत उन कुछ गिने-चुने देशों में शामिल था,जिन्होंने ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही वाशिंगटन के साथ व्यापार वार्ता शुरू की थी। उन्होंने कहा, “भारत ने स्वतंत्रता दिवस के तुरंत बाद टैरिफ पर बातचीत शुरू करने का प्रस्ताव रखा था। मुझे लगा था कि मई या जून तक कोई समझौता हो जाएगा। वास्तव में, मुझे लगा था कि भारत पहले हुए समझौतों में से एक हो सकता है,लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो पाया है।”
भारत की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई मौकों पर स्पष्ट कर चुके हैं कि उनकी सरकार किसी भी ऐसे समझौते को स्वीकार नहीं करेगी जिससे किसानों,छोटे व्यवसायों और स्थानीय उद्योगों के हितों को खतरा हो। यही कारण है कि भारत अमेरिका के दबाव में झुकने से इनकार करता रहा है। भारत का रुख यह रहा है कि व्यापार समझौते दोनों पक्षों के लिए संतुलित और न्यायसंगत होने चाहिए।
लेकिन विवाद केवल टैरिफ तक सीमित नहीं है। अमेरिकी वित्त मंत्री ने एक बार फिर भारत पर रूसी तेल खरीदकर “मुनाफाखोरी” करने का आरोप लगाया। ट्रंप प्रशासन की ओर से यह आरोप लगातार दोहराया जाता रहा है कि भारत रूस से रियायती दरों पर तेल खरीदकर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपना फायदा देख रहा है। इस आरोप पर भारत ने कई बार जवाब दिया है। पिछले सप्ताह विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने सख्त लहजे में कहा था, “अगर आपको भारत से तेल या रिफाइंड उत्पाद खरीदने में कोई समस्या है,तो उसे न खरीदें।”
जयशंकर का यह बयान भारत की आत्मनिर्भर विदेश नीति का प्रतीक माना जा रहा है। भारत ने हमेशा कहा है कि उसकी ऊर्जा जरूरतें बहुत बड़ी हैं और वह अपने नागरिकों के हित में फैसले लेता रहेगा। रूस से सस्ता तेल खरीदना भारत के लिए आर्थिक दृष्टि से फायदेमंद रहा है और इस पर किसी अन्य देश के दबाव को स्वीकार करना नई दिल्ली के लिए संभव नहीं है।
बेसेंट ने साक्षात्कार में भारत द्वारा ब्रिक्स देशों के साथ रुपए में व्यापार करने के सवाल पर भी टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि उन्हें “रुपए के रिजर्व करेंसी बनने” की कोई चिंता नहीं है। इस तरह उन्होंने परोक्ष रूप से यह संकेत देने की कोशिश की कि डॉलर की वैश्विक भूमिका को भारत की क्षेत्रीय पहल से कोई चुनौती नहीं है। हालाँकि,भारत ने इस विषय पर पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि ब्रिक्स के भीतर ‘डी-डॉलरीकरण’ का कोई एजेंडा नहीं है।
पिछले महीने विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा था कि डी-डॉलरीकरण भारत या ब्रिक्स के एजेंडे का हिस्सा नहीं है। उनका कहना था कि ब्रिक्स सदस्य देशों के बीच सहयोग बढ़ाने का लक्ष्य अवश्य है,लेकिन यह किसी विशेष मुद्रा को चुनौती देने के उद्देश्य से नहीं है। इस बयान से भारत ने संकेत दिया था कि वह डॉलर के मुकाबले रुपए को आगे बढ़ाने की होड़ में नहीं है,बल्कि केवल अपनी आर्थिक साझेदारियों में विविधता लाना चाहता है।
कुल मिलाकर देखा जाए तो भारत और अमेरिका के बीच रिश्ते एक जटिल दौर से गुजर रहे हैं। जहाँ एक ओर दोनों देशों के बीच रक्षा,तकनीक और सामरिक क्षेत्रों में सहयोग लगातार मजबूत हो रहा है,वहीं व्यापार के मोर्चे पर तनाव और मतभेद साफ दिखाई दे रहे हैं। अमेरिकी प्रशासन का मानना है कि भारत को अपने बाजार को और ज्यादा खोलना चाहिए,जबकि भारत का रुख यह है कि उसकी घरेलू अर्थव्यवस्था और कमजोर वर्गों को नुकसान पहुँचाने वाली कोई भी शर्त स्वीकार नहीं की जाएगी।
स्कॉट बेसेंट की ओर से जताई गई उम्मीद को सकारात्मक संकेत माना जा सकता है,लेकिन व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो टैरिफ,रूसी तेल खरीद और व्यापार संतुलन जैसे मुद्दे अभी भी दोनों देशों के बीच बड़ी अड़चन बने हुए हैं। भारत अपनी संप्रभुता और आत्मनिर्भरता के साथ समझौता करने को तैयार नहीं है,वहीं अमेरिका अपनी आर्थिक नीतियों में सख्त रुख अपनाए हुए है।
आने वाले महीनों में यह देखना अहम होगा कि क्या दोनों देश इन विवादित मुद्दों को सुलझाकर किसी व्यापार समझौते तक पहुँच पाते हैं या नहीं। यदि ऐसा होता है, तो यह न केवल दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं के लिए बल्कि वैश्विक व्यापार व्यवस्था के लिए भी एक महत्वपूर्ण संदेश होगा,लेकिन फिलहाल स्थिति यह है कि उम्मीद और टकराव दोनों साथ-साथ चल रहे हैं।