नई दिल्ली,22 जुलाई (युआईटीवी)- मुंबई की लोकल ट्रेनों में 2006 में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने सोमवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए 12 आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। इस फैसले ने न केवल पीड़ित परिवारों को झटका दिया है,बल्कि देश की न्यायिक और राजनीतिक व्यवस्था में भी हलचल मचा दी है। केंद्र सरकार और महाराष्ट्र की एंटी टेररिज्म स्क्वॉड (एटीएस) ने इस फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।
हाईकोर्ट ने जिन 12 आरोपियों को बरी किया,उन्हें 2015 में विशेष टाडा अदालत ने दोषी करार दिया था। इनमें पाँच को मौत की सजा और सात को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी,लेकिन न्यायमूर्ति अनिल किलोर और न्यायमूर्ति एस चांडक की खंडपीठ ने अभियोजन पक्ष के सबूतों को अपर्याप्त मानते हुए कहा कि आरोपियों को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए। कोर्ट ने आदेश दिया कि सभी आरोपियों को तुरंत जेल से रिहा किया जाए।
यह मामला 11 जुलाई 2006 की उस भयावह शाम से जुड़ा है,जब मात्र 11 मिनट के भीतर मुंबई की लोकल ट्रेनों में सात जगहों पर बम धमाके हुए थे। इन धमाकों में 189 लोगों की मौत हो गई थी और 827 से अधिक लोग घायल हुए थे। इन धमाकों ने देश को दहला दिया था और मुंबई की जीवन रेखा मानी जाने वाली लोकल ट्रेनों में लोगों के बीच डर का माहौल पैदा कर दिया था। नवंबर 2006 में इस मामले में चार्जशीट दाखिल की गई और लंबे समय तक चले मुकदमे के बाद 2015 में ट्रायल कोर्ट ने 12 आरोपियों को दोषी ठहराया।
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अभियोजन पक्ष ठोस सबूत पेश करने में नाकाम रहा। न्यायालय ने पाया कि आरोपियों के खिलाफ प्रस्तुत गवाहियों में कई विरोधाभास हैं और जाँच एजेंसियों द्वारा आरोपियों की कथित स्वीकारोक्ति पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि आपराधिक मामलों में किसी भी आरोपी को केवल संदेह के आधार पर सजा नहीं दी जा सकती और जब तक आरोप सिद्ध न हों,तब तक उसे निर्दोष मानना ही न्याय का तकाजा है।
हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद केंद्र सरकार ने तुरंत प्रतिक्रिया दी और सॉलिसिटर जनरल (एसजी) को सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करने का निर्देश दिया। एसजी ने शीर्ष अदालत के समक्ष इस मामले की तत्काल सुनवाई की माँग की। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की अपील को स्वीकार करते हुए गुरुवार को इस मामले पर सुनवाई करने का फैसला किया है। शीर्ष अदालत यह तय करेगी कि हाईकोर्ट के फैसले पर फिलहाल रोक लगाई जाए या नहीं और आगे की सुनवाई किस दिशा में की जाएगी।
इसी बीच,महाराष्ट्र की एटीएस ने भी बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। एटीएस का कहना है कि इतने बड़े आतंकी हमले के मामले में आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी किया जाना एक गंभीर चिंता का विषय है और इससे आतंकवाद से लड़ाई कमजोर हो सकती है। एटीएस ने कोर्ट से गुहार लगाई है कि मामले की गहराई से पुन: सुनवाई की जाए और हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाई जाए।
हाईकोर्ट के इस फैसले पर पीड़ित परिवारों ने भी नाराजगी जताई है। धमाकों में अपने प्रियजनों को खो चुके कई लोगों ने कहा कि यह फैसला उनके घावों पर नमक छिड़कने जैसा है। पीड़ितों का कहना है कि इतने सालों की कानूनी लड़ाई के बाद भी उन्हें न्याय नहीं मिला। कुछ परिजनों ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि यदि आरोपी निर्दोष थे,तो इतने सालों तक उन्हें जेल में क्यों रखा गया और अगर वे दोषी थे,तो उन्हें सजा क्यों नहीं दी गई।
मामले से जुड़े कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि हाईकोर्ट का फैसला न्यायिक दृष्टि से सबूतों की कमी को ध्यान में रखकर दिया गया है। आपराधिक न्याय प्रणाली में यह सिद्धांत स्थापित है कि ‘सौ दोषी छूट जाएँ,लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए।’ हालाँकि,इतने बड़े आतंकी हमले के मामले में सबूतों की कमी जाँच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाती है।
इस मामले की सुनवाई के दौरान अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया था कि 12 आरोपियों ने पाकिस्तान के आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और इंडियन मुजाहिदीन के इशारे पर इन धमाकों को अंजाम दिया था। अभियोजन के अनुसार, आरोपियों ने विस्फोटक पदार्थ ट्रेनों में रखे और धमाकों की योजना पाकिस्तान में रची गई थी,लेकिन हाईकोर्ट ने अभियोजन की इस दलील को ठोस सबूतों के अभाव में खारिज कर दिया।
अब सभी की निगाहें सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई पर टिकी हैं। गुरुवार को होने वाली सुनवाई में यह स्पष्ट होगा कि हाईकोर्ट के फैसले को फिलहाल रोक लगाई जाती है या नहीं। यदि सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी,तो मामले की दोबारा सुनवाई शुरू होगी। वहीं,अगर सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा,तो यह फैसला देश की न्यायिक व्यवस्था में एक ऐतिहासिक उदाहरण के रूप में देखा जाएगा।
मुंबई सीरियल ब्लास्ट मामला न केवल एक आपराधिक मामला है,बल्कि यह देश की आतंकी गतिविधियों के खिलाफ लड़ाई का भी प्रतीक है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने वाले समय में भारत की न्यायिक और सुरक्षा प्रणाली के लिए एक महत्वपूर्ण दिशा तय करेगा।