'एएफडी पार्टी' पर जर्मनी ने की कड़ी टिप्पणी (तस्वीर क्रेडिट@BharatX20)

‘एएफडी पार्टी’ पर जर्मनी ने की कड़ी टिप्पणी,पार्टी को ‘धुर-चरमपंथी’ करार दिया,अमेरिका ने जताई चिंता

वाशिंगटन,3 मई (युआईटीवी)- जर्मनी में सियासी हलचल तब तेज हो गई,जब सरकार ने ‘ऑल्टरनेटिव फॉर जर्मनी ‘(एएफडी) पार्टी को ‘धुर-चरमपंथी’ करार दिया। इस बयान के बाद अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया भी देखने को मिली। अमेरिका के विदेश मंत्री ने इस निर्णय को ‘अत्याचार’ बताया और राजनीतिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल उठाए।

हाल ही में जर्मनी की घरेलू खुफिया एजेंसी ‘फेडरल ऑफिस फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ द कॉन्स्टिट्यूशन’ (बीएफवी) ने दक्षिणपंथी राजनीतिक दल अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) को एक “राष्ट्रव्यापी चरमपंथी संगठन” घोषित किया है। इस कदम को लेकर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर गंभीर प्रतिक्रियाएँ सामने आई हैं,खासकर अमेरिका से।

अमेरिका के वरिष्ठ रिपब्लिकन नेता और वर्तमान विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने इस निर्णय की तीव्र आलोचना की है। उन्होंने जर्मनी की लोकतांत्रिक प्रणाली पर सवाल उठाते हुए इसे “छद्म अत्याचार” बताया। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (पूर्व ट्विटर) पर पोस्ट करते हुए रुबियो ने लिखा, “जर्मनी ने अपनी जासूसी एजेंसी को विपक्ष की निगरानी करने के लिए नई शक्तियाँ दे दी हैं। यह लोकतंत्र नहीं है,यह छद्म अत्याचार है।”

रुबियो का बयान उस समय आया,जब बीएफवी ने 1,100 पन्नों की विस्तृत रिपोर्ट जारी कर बताया कि एएफडी की विचारधारा नस्लवादी,मुस्लिम विरोधी और लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है। इस रिपोर्ट के आधार पर पार्टी को चरमपंथी संस्था के रूप में वर्गीकृत किया गया है,जिससे एजेंसी को अब इस पर व्यापक निगरानी, मुखबिरों की नियुक्ति और कम्युनिकेशन इंटरसेप्ट करने का अधिकार प्राप्त हो गया है।

मार्को रुबियो ने यह भी कहा कि “वास्तविक चरमपंथी एएफडी नहीं है,बल्कि जर्मनी की खुली सीमा वाली आव्रजन नीतियाँ हैं।” उन्होंने तर्क दिया कि एएफडी सिर्फ उन नीतियों का विरोध करती है,जिनका देश की स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। रुबियो ने जर्मनी से अपील की कि वह अपने रुख पर पुनर्विचार करे।

इस मुद्दे पर अकेले रुबियो ही नहीं,बल्कि अमेरिकी उपराष्ट्रपति जे.डी. वेंस और प्रसिद्ध उद्योगपति एलन मस्क भी एएफडी के समर्थन में सामने आ चुके हैं। उन्होंने भी यह सवाल उठाया कि क्या किसी राजनीतिक दल की आलोचना करने को “चरमपंथ” कहकर दबाया जाना उचित है।

जर्मन खुफिया एजेंसी बीएफवी ने स्पष्ट किया कि एएफडी की विचारधारा “जातीय-आधारित राष्ट्रवाद” को बढ़ावा देती है,जो जर्मनी की उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पार्टी के कई नेताओं ने ऐसे बयान दिए हैं,जो मुस्लिम विरोधी,शरणार्थी विरोधी और आप्रवासन विरोधी हैं। बीएफवी का यह निर्णय लगभग तीन वर्षों की गहन समीक्षा और निगरानी के बाद लिया गया है।

यह पहला मौका नहीं है,जब एएफडी को इस तरह के वर्गीकरण का सामना करना पड़ा है। इससे पहले भी इसकी कई क्षेत्रीय शाखाएँ पहले से ही चरमपंथी संस्थाएँ घोषित की जा चुकी हैं,लेकिन पहली बार पूरे राष्ट्रीय स्तर पर यह निर्णय लागू किया गया है।

एएफडी के सह-नेता एलिस वीडेल और टीनो क्रुपल्ला ने इस फैसले की कड़ी निंदा करते हुए इसे लोकतंत्र के लिए “एक गंभीर झटका” बताया है। पार्टी ने एक बयान में कहा, “हम इस निर्णय को कानूनी रूप से चुनौती देना जारी रखेंगे। यह वर्गीकरण लोकतंत्र को खतरे में डालने वाला एक अपमान है।”

उन्होंने यह भी दावा किया कि यह कदम सरकार द्वारा एएफडी की बढ़ती लोकप्रियता से घबराकर उठाया गया है। वास्तव में,हाल के राष्ट्रीय जनमत सर्वेक्षणों में एएफडी को काफी समर्थन मिला है और पिछले महीने यह पहली बार मुख्यधारा के रूढ़िवादी दल सीडीयू/सीएसयू को पीछे छोड़ते हुए शीर्ष स्थान पर पहुँच गई थी।

यह घटनाक्रम एक महत्वपूर्ण वैश्विक बहस को जन्म देता है। क्या किसी राजनीतिक विचारधारा का विरोध करना उसे लोकतंत्र-विरोधी बनाता है? क्या राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर विचारों की अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है?

एक ओर बीएफवी का तर्क है कि एएफडी की विचारधारा राष्ट्र की लोकतांत्रिक संरचना को नुकसान पहुँचा सकती है,जबकि दूसरी ओर आलोचकों का कहना है कि राजनीतिक असहमति को दबाने के लिए खुफिया तंत्र का प्रयोग “लोकतंत्र का उल्लंघन” है।

जर्मनी और अमेरिका के बीच यह विचारधारात्मक टकराव केवल द्विपक्षीय संबंधों तक सीमित नहीं है,बल्कि यह आधुनिक लोकतंत्रों में राजनीतिक स्वतंत्रता,सुरक्षा और सामाजिक एकजुटता की परिभाषा को नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर करता है।

जहाँ एक ओर जर्मन एजेंसियाँ चरमपंथ से देश की रक्षा के लिए सक्रिय हैं,वहीं अमेरिका के कुछ प्रभावशाली नेता इसे स्वतंत्र राजनीतिक अभिव्यक्ति पर हमला मान रहे हैं। आने वाले समय में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि यह मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति और लोकतांत्रिक मूल्यों को किस दिशा में प्रभावित करता है।